
शहरों में हिंसा और बवाल धार्मिक अभिव्यक्ति या उकसावे का उपकरण? पूरे देश बहस में शुरु
मुस्लिम विद्वानों का भी मानना है कि पैग़म्बर से सच्चा प्रेम उनके बताए जीवन मूल्यों पर चलने में है, न कि पोस्टर और झंडों से माहौल भड़काने में
स्वराज इंडिया न्यूज ब्यूरो
कानपुर/बरेली/लखनऊ।
उत्तर प्रदेश में इन दिनों “आई लव मोहम्मद” लिखे पोस्टर और बैनर जगह-जगह लगाए जाने से माहौल गरमाता जा रहा है। कानपुर से शुरू हुआ विवाद बरेली में हिंसक रूप ले चुका है, जहां उपद्रवियों ने जमकर लूटपाट और तोड़फोड़ की। स्थिति बिगड़ने के बाद प्रशासन को भारी पुलिस बल तैनात करना पड़ा। फिलहाल तनावपूर्ण शांति बनी हुई है।
जानकारों का कहना है कि इस तरह के पोस्टर धार्मिक आस्था के नाम पर राजनीतिक लाभ उठाने का नया हथकंडा हैं। इस्लाम धर्म में जहां पैग़म्बर मोहम्मद साहब की तस्वीर, मूर्ति या प्रतीक बनाने तक की मनाही है, वहीं उनके नाम पर बैनर और नारेबाज़ी करना इस्लामी शिक्षा के विपरीत है। मुस्लिम विद्वानों का भी मानना है कि पैग़म्बर से सच्चा प्रेम उनके बताए जीवन मूल्यों पर चलने में है, न कि पोस्टर और झंडों से माहौल भड़काने में।
बरेली में हुई हिंसा के लिए विवादित मौलाना तौकीर रज़ा को जिम्मेदार ठहराते हुए प्रशासन ने उनके खिलाफ कार्रवाई शुरू की है। लेकिन सवाल यह है कि जब इस्लामी शिक्षाओं में ऐसी हरकतों को मान्यता नहीं, तो फिर इसे धार्मिक स्वतंत्रता का नाम क्यों दिया जा रहा है?

विशेषज्ञों का मानना है कि पोस्टरों का उद्देश्य केवल समुदाय विशेष में धार्मिक जोश जगाना नहीं, बल्कि दूसरे वर्गों को उकसाना भी है। कई जगहों पर ये बैनर ऐसे इलाकों में लगाए गए, जहां दूसरे धर्मों की आबादी अधिक है। नतीजतन टकराव की स्थितियां बनीं और छोटे-छोटे विवाद दंगों में बदलते चले गए।
कानून व्यवस्था की चुनौती और प्रशासन की शिथिलता ने इन हालात को और गंभीर बना दिया है। दुकानों का समय से पहले बंद होना, बच्चों के मन में डर बैठना और आम नागरिकों का दहशत में जीना – यही इस आग का सबसे खतरनाक असर है।
मुस्लिम धर्मगुरुओं ने साफ कहा है कि पैग़म्बर मोहम्मद साहब के नाम का इस्तेमाल राजनीतिक मंसूबों के लिए करना पाप है। समाज के सभी वर्गों को यह समझना होगा कि धार्मिक नारेबाज़ी और पोस्टरबाज़ी का असली मकसद शांति नहीं, बल्कि सियासत है।
विवाद की शुरुआत से हिंसा तक
इस मुहिम की शुरुआत 4 सितंबर को कानपुर में हुई, जब पैगंबर मुहम्मद की जयंती (मिलाद-उन-नबी) की जुलूस के दौरान एक तंबू पर “I Love मोहम्मद” लिखा बोर्ड लगाया गया। स्थानीय हिंदू समूहों ने इसे “नई परंपरा” बताते हुए विरोध जताया।
पुलिस ने बोर्ड हटाने की कार्रवाई की और उस पर एफआईआर दर्ज की गई, जिसमें 24 लोगों (9 नामित, 15 अज्ञात) के खिलाफ मामला दर्ज हुआ।
विवाद तेजी से फैला। बरेली में शुक्रवार की नमाज़ के बाद हजारों लोग उमड़े, पत्थरबाज़ी हुई, पुलिस को लाठी चार्ज करना पड़ा और tear‐gas का भी उपयोग हुआ। कम से कम 10 पुलिसकर्मी घायल हुए, और 50 से अधिक लोग हिरासत में लिए गए।
मौलाना तौकीर रज़ा ख़ान को बरेली में गिरफ्तार किया गया, उन पर उपद्रव भड़काने का आरोप है।
विवाद की आग “विरोधी नारा” रूप ले चुकी है — वाराणसी में “I Love Mahadev” के पोस्टर लगाए गए, कुछ जगहों पर हिंदू समुदाय ने अपनी धार्मिक शक्ति दिखाने के लिए इसी तरह की मुहिम चलाई।

क्यों बढ़ रहा राजनीतिक और सामाजिक टकराव ?
असदुद्दीन ओवैसी ने यह कहकर विरोध किया कि “I Love मोहम्मद” जैसे पोस्टर किसी अपराध की श्रेणी में नहीं आते। उन्होंने भारत के संविधान की धार्मिक स्वतंत्रता (Article 25) का हवाला देते हुए कहा कि आस्था अभिव्यक्ति का हिस्सा है।
विपक्षी नेता चंद्रशेखर आज़ाद ने उत्तर प्रदेश सरकार पर तानाशाही रवैया अपनाने का आरोप लगाया और निष्पक्ष जांच की मांग उठाई।
राज्य सरकार ने कड़ी चेतावनी दी है कि दंगों, धार्मिक तनाव या उकसावे में संलिप्तों पर सख्त कार्रवाई की जाएगी।
उठ रहे संवैधानिक, नैतिक और सामाजिक कई सवाल
- धार्मिक स्वतंत्रता का दायरा — क्या “I Love मोहम्मद” पोस्टर धार्मिक प्रेम या भावनात्मक अभिव्यक्ति की एक सामान्य रूप है, या इसे उकसावे के रूप में देखा जाना चाहिए?
- उकसावे बनाम आस्था — इस्लामी शिक्षाएँ चित्र, मूर्ति या प्रतिमा पूजा को मना करती हैं। तो क्या इस तरह का नारा विरोधाभासी नहीं?
- राजनीतिक उपयोग — क्या यह आंदोलन वास्तव में धार्मिक प्रेम दिखाने की मुहिम है, या राजनीतिक हित साधने का उपकरण?
- संघर्ष की शुरुआत और आगे की राह — सोशल मीडिया पर #ILoveMuhammad ट्रेंड हो रहा है, और हिंदू समुदाय ने भी प्रतिक्रियात्मक मुहिमें चलाई हैं।
- प्रशासन और कानून व्यवस्था — किस स्तर तक प्रशासन ने समय रहते हस्तक्षेप किया? और घटनाओं के बाद न्याय कैसे सुनिश्चित होगा?


