
स्वराज इंडिया न्यूज डेस्क/रायपुर।
छत्तीसगढ़ के छोटे कर्मचारी जगेश्वर प्रसाद अवस्थी की ज़िंदगी भारतीय न्याय व्यवस्था की सबसे दर्दनाक तस्वीर बनकर सामने आई है। 1986 में उन पर महज़ ₹100 की रिश्वत लेने का आरोप लगा। आरोप भी ऐसे कि अधिकारियों ने उनके कपड़ों में नोट डाल दिए और बिना किसी स्वतंत्र गवाह के केस दर्ज कर दिया।
2004 में निचली अदालत ने उन्हें एक साल की सज़ा सुनाई। इसके बाद उनका वेतन आधा कर दिया गया। धीरे-धीरे परिवार टूटता चला गया — बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हुई, शादियाँ टलीं और समाज में उन्हें भ्रष्टाचारी कहकर अपमानित किया गया। करीब 39 साल तक अदालतों में भटकने के बाद 2025 में छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने साफ़ कहा कि उनके खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं है। गवाहों ने स्वीकार किया कि उन्होंने कुछ देखा-सुना नहीं था और पैसों की बरामदगी को लेकर भी स्पष्टता नहीं थी। आज भले ही जगेश्वर प्रसाद बेगुनाह साबित हो गए हों, लेकिन उनके शब्द और भी कचोटते हैं —
“मैंने सब कुछ खो दिया – करियर, पैसा और इज़्ज़त।”
यह मामला सिर्फ एक कर्मचारी की त्रासदी नहीं है, बल्कि यह बताता है कि जब न्याय 39 साल की देरी से मिले तो वह न्याय नहीं, बल्कि नई सज़ा बन जाता है।
देश की अदालतों में फ़ाइलों के बोझ, तारीख़ पर तारीख़ और सिस्टम की मनमानी ने न्यायपालिका की साख पर सवाल खड़े कर दिए हैं। यही कारण है कि आम आदमी अदालत जाने से डरता है, भले ही वह निर्दोष ही क्यों न हो। सवाल यही है – जब तक न्याय समय पर नहीं मिलेगा, क्या यह व्यवस्था आम नागरिकों का भरोसा वापस ला पाएगी?


